दीपावली का त्योहार बीत गया, पर उसका धुआं अब भी हवा में तैर रहा है। इस बार सिर्फ दिल्ली नहीं, पूरा देश उस जहरीली परत में लिपटा है जिसे हम “त्योहार की रोशनी” के नाम पर हर साल खुद फैलाते हैं। दीयों से जगमगाने वाली रात के बाद देश के कई शहरों में सूरज का उगना धुंध में खो गया। दिल्ली, लखनऊ, पटना, कोलकाता, भोपाल, जयपुर, अहमदाबाद—हर जगह वही नज़ारा, वही सांसों पर भारी धुआं, वही गला चुभती हवा। दीपावली का उत्सव अब पर्यावरण के लिए सबसे काला दिन बन चुका है।
दिल्ली की हवा हर साल की तरह ‘गंभीर’ श्रेणी में पहुंची, लेकिन उससे अलग क्या? लखनऊ में एयर क्वालिटी इंडेक्स 430, पटना में 410, कानपुर में 402 और कोलकाता में 385 दर्ज हुआ। यहां तक कि जयपुर और भोपाल जैसे शहरों में भी हवा ‘बहुत खराब’ श्रेणी में रही। यानी यह अब किसी एक शहर की त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे भारत की सामूहिक सांसों का संकट है।
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा कि केवल ‘ग्रीन पटाखे’ चलाए जाएं, वह भी सीमित समय में। लेकिन कोई पालन नहीं हुआ। न किसी राज्य में निगरानी तंत्र बना, न कोई नियंत्रण रहा। ग्रीन पटाखों के नाम पर पुराने, पारंपरिक पटाखे खुलेआम बिके और फोड़े गए। पुलिस और प्रशासन की भूमिका बस बयानबाज़ी तक सिमट गई। देश की हवा फिर वही जहरीला जामा पहन चुकी है।
यह सवाल अब दिल्ली का नहीं, भारत का है—क्या हमारी परंपराएं इतनी कठोर हो चुकी हैं कि हम सांस लेने का हक़ भी खो दें? दीपावली का अर्थ था अंधकार मिटाना, लेकिन हमने रोशनी के नाम पर वायु को अंधकारमय बना दिया।
पटाखा उद्योग का अपना पक्ष है। तमिलनाडु के शिवकाशी में देश के करीब 90 प्रतिशत पटाखे बनते हैं। यहां 1000 से अधिक फैक्ट्रियों में आठ लाख लोग काम करते हैं। यह उद्योग हर साल करीब 6 से 7 हजार करोड़ रुपये का कारोबार करता है। सरकार को 28 प्रतिशत जीएसटी राजस्व मिलता है। यही कारण है कि किसी भी सरकार ने अब तक पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का साहस नहीं दिखाया। एक ओर पर्यावरण और स्वास्थ्य की चिंता है, दूसरी ओर रोजगार और राजस्व का गणित। नतीजा यह कि सरकारें हर साल “संतुलन” के नाम पर चुप रहती हैं। लेकिन यह संतुलन अब घातक हो चुका है। देश के अस्पतालों में सांस की तकलीफ वाले मरीजों की संख्या हर साल दीपावली के बाद कई गुना बढ़ जाती है। बच्चे मास्क पहनकर स्कूल जाते हैं, बुजुर्ग घरों में बंद रहते हैं, और हवा में घुला जहर हमारे फेफड़ों का स्थायी हिस्सा बन चुका है। यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि हमारी अपनी बनाई हुई त्रासदी है।
‘ग्रीन पटाखे’ एक उम्मीद के रूप में आए थे। ऐसे पटाखे जो कम प्रदूषण फैलाएं। लेकिन उनका असर सीमित रहा। बाजार में “ग्रीन” के नाम पर वही पुराने स्टॉक बेचे जाते हैं। कोई एजेंसी यह जांचने नहीं जाती कि ये पटाखे वास्तव में पर्यावरण-अनुकूल हैं या नहीं। सरकारों के पास न तो पर्याप्त तंत्र है, न राजनीतिक इच्छाशक्ति। पटाखों के अलावा भी समस्या बहुआयामी है। देश के 20 से अधिक राज्यों में पराली जलाना जारी है, वाहनों और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला धुआं हवा में घुला रहता है। जब इसके ऊपर दिवाली की आतिशबाजी जुड़ती है, तो हवा की गुणवत्ता और गिर जाती है। इस साल भी वाहनों ने प्रदूषण में 15.6 प्रतिशत और उद्योगों ने 23.3 प्रतिशत योगदान दिया, जबकि आतिशबाजी ने इसे असहनीय बना दिया।
भारत के कई शहर अब स्थायी रूप से प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। दिल्ली, लखनऊ, गाजियाबाद, पटना और मुजफ्फरपुर तो लगातार दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में रहते हैं। लेकिन अब दक्षिण भारत के शहर भी इससे अछूते नहीं। बेंगलुरु और चेन्नई में भी इस साल दिवाली के बाद हवा ‘बहुत खराब’ श्रेणी में पहुंच गई। यह दिखाता है कि समस्या राष्ट्रीय है, क्षेत्रीय नहीं।
सरकारें अब ‘ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान’ (GRAP) जैसी योजनाएं लागू कर रही हैं—निर्माण कार्य रोकना, सड़कों पर पानी का छिड़काव, वाहनों की जांच। लेकिन जब तक जनता खुद जिम्मेदारी नहीं लेगी, तब तक कोई नीति काम नहीं करेगी। दीपावली की असली भावना दीयों और साझा खुशी में है, पटाखों की प्रतिस्पर्धा में नहीं। पटाखा उद्योग कहता है कि उस पर प्रतिबंध से रोजगार छिन जाएगा। लेकिन क्या यह तर्क उस हवा से बड़ा है जिसे हम रोज़ सांस में लेते हैं? हर उद्योग को समय के साथ बदलना पड़ता है। यदि ग्रीन पटाखों का उत्पादन पारदर्शी और नियंत्रित रूप में हो, तो यह उद्योग भी टिक सकता है और पर्यावरण भी सुरक्षित रह सकता है। लेकिन इसके लिए राजनीतिक ईमानदारी और प्रशासनिक सख्ती चाहिए—जो फिलहाल दोनों ही गायब हैं।
त्योहार मनाना हमारी संस्कृति है, पर संस्कृति का अर्थ प्रकृति को नष्ट करना नहीं। यह तय करना अब जरूरी है कि दीपावली रोशनी का पर्व रहे या धुएं का उत्सव बन जाए। एक रात की खुशी के लिए आने वाली पीढ़ियों की सांसें कुर्बान करना कोई परंपरा नहीं, मूर्खता है। देश की हवा आज यह कह रही है—अब वक्त है परंपरा को पुनर्परिभाषित करने का। हमें तय करना है कि अगली दिवाली रोशनी का पर्व होगी या धुएं की दीवार।
अंधेरे को मिटाने का प्रतीक बन चुका त्योहार अब चेतावनी बन गया है—या तो हम अपनी सांसों को बचाएं, या हर साल उन्हें यूं ही राख में बदलते रहें।
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