अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर भारतीय कूटनीति में हलचल मचा दी है। यह मामला रूस से तेल खरीद को लेकर है। ट्रंप ने दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें आश्वस्त किया है कि भारत अब रूस से तेल नहीं खरीदेगा।
यह बयान ऐसे समय आया है जब भारत की विदेश नीति पहले ही कई मोर्चों पर संतुलन साधने की चुनौती से जूझ रही है। एक ओर अमेरिका के साथ गहराते रणनीतिक संबंध हैं, तो दूसरी ओर रूस के साथ दशकों पुराने रक्षा और ऊर्जा सहयोग। ट्रंप का यह दावा न केवल भारत की स्थिति को असहज करता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि वाशिंगटन की नजरें अब नई दिल्ली की ऊर्जा नीति पर गहराई से टिकी हैं।
भारत सरकार ने इस पर सावधानी भरा रुख अपनाया। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री और ट्रंप के बीच हालिया बातचीत की जानकारी नहीं है, हालांकि उन्होंने यह स्वीकार किया कि अमेरिका के साथ ऊर्जा सहयोग पर बातचीत जारी है। यह प्रतिक्रिया न तो पूर्ण खंडन थी, न ही स्पष्ट स्वीकृति, बल्कि वही “सॉफ्ट डिनायल” रणनीति, जो भारत ने इससे पहले ऑपरेशन सिंदूर पर ट्रंप के दावे के बाद भी अपनाई थी।
ट्रंप की ‘कूटनीतिक अनिश्चितता’ और भारत की दुविधा
ट्रंप की राजनीतिक शैली हमेशा से ही अप्रत्याशित रही है। वे बयान देकर वैश्विक कूटनीति की लकीरें खींचते और मिटाते रहते हैं। कभी कहते हैं कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान संघर्ष रुकवाने में मध्यस्थता की, तो कभी यह दावा करते हैं कि उनके “निजी हस्तक्षेप” से ऑपरेशन सिंदूर में युद्धविराम हुआ। भारत ने हर बार ऐसे बयानों को संयम से संभाला है, ताकि सार्वजनिक विवाद से बचा जा सके। परंतु यह संयम अब और कठिन होता जा रहा है। भारत आज अमेरिका से व्यापारिक रियायतें, तकनीकी सहयोग और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक समर्थन चाहता है। साथ ही, रूस से ऊर्जा और रक्षा क्षेत्र में स्थिर संबंध भी उतने ही आवश्यक हैं। ऐसे में ट्रंप जैसे नेता के बयान भारत की ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ को चुनौती देते हैं।
रूस से तेल खरीद का वास्तविक परिदृश्य
यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों ने रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाए। अमेरिका और यूरोप ने रूसी तेल से दूरी बनाई, लेकिन भारत ने अपने राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता दी। सस्ते दामों पर रूस से तेल खरीद कर भारत ने अपनी ऊर्जा जरूरतें पूरी कीं और मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखा। यही नीति मोदी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से भी लाभकारी रही।
अमेरिका और यूरोप भले इसे रूस की मदद मानते हों, लेकिन भारत ने हर बार यह दोहराया है कि उसका निर्णय “राष्ट्रीय हित” के आधार पर है, न कि किसी गुट की राजनीति पर। वास्तव में, भारत ने रूसी तेल खरीदते हुए पश्चिमी देशों को भी परोक्ष रूप से राहत दी। क्योंकि सस्ते कच्चे तेल की वजह से वैश्विक तेल बाजार स्थिर रहा।
कूटनीति के इस शतरंज में भारत की चाल
भारत फिलहाल क्वाड (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत) जैसी साझेदारियों के माध्यम से हिंद-प्रशांत में चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने की कोशिश में है। पर ट्रंप के बयानों ने इस साझेदारी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अगर अमेरिकी नेतृत्व बार-बार भारत की संप्रभु नीति पर टिप्पणी करेगा, तो भारत की ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ की धार कमजोर पड़ सकती है।
दरअसल ट्रंप के यह बयान को उनके चुनावी एजेंडे का हिस्सा है। अमेरिकी राजनीति में चीन-विरोधी भावना मजबूत है, और रूस के खिलाफ सख्त रुख दिखाना लोकप्रिय कदम माना जाता है। ऐसे में भारत को उनके वक्तव्यों में ‘कूटनीति से अधिक घरेलू राजनीति’ की झलक दिखती है।
नैतिक स्पष्टता बनाम व्यावहारिक नीति
भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वह एक वैश्विक शक्ति बनने की राह पर अपने निर्णयों में नैतिक स्पष्टता रख पाएगा? यूक्रेन युद्ध के बाद की दुनिया में “गुटनिरपेक्षता” का अर्थ अब उतना सरल नहीं रह गया है। भारत के लिए यह समय है कि वह यह स्पष्ट करे कि उसकी प्राथमिकता “पश्चिमी दबाव” नहीं, बल्कि “वैश्विक स्थिरता” और “विकासशील दुनिया की आवाज़” बनना है।
बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि “स्वतंत्रता केवल बाहरी बंधनों से मुक्ति नहीं, बल्कि अपने निर्णय लेने की क्षमता भी है।” भारत की विदेश नीति आज इसी कसौटी पर है।
For clarifications/queries, please contact Public Talk of India at:
+91-98119 03979 publictalkofindia@gmail.com
![]()
For clarifications/queries,
please contact Public Talk of India at: