वैसे तो बिहार विधानसभा चुनाव अपने आप में एक अनोखा चुनाव है लेकिन इसमें भी मिथिलांचल का मधुबनी जिला इस बार चुनावी चर्चाओं के केंद्र में है. यहां मतदाता न सिर्फ वादों को सुन रहे हैं, बल्कि उनकी हकीकत भी परख रहे हैं. सत्ताधारी एनडीए और विपक्षी महागठबंधन दोनों ने अपने-अपने पिटारे खोल दिए हैं.
मिथिलांचल में वादों की बौछार और सवालों की बरसात
मधुबनी, जिसे मिथिलांचल की हृदयस्थली कहा जाता है, यहां मतदाता चुनावी वादों और आखिरी वक्त की सौगातों दोनों को शक की निगाह से देख रहे हैं. लोगों का कहना है कि रेवड़ियों जैसी योजनाओं से अस्थायी राहत मिल सकती है, लेकिन स्थायी विकास नहीं.
बनीपट्टी में हुए एक स्थानीय चर्चा में युवा धीरेंद्र ठाकुर सवाल उठाते हैं कि “क्या महिलाओं को जीविका के तहत 10 हजार रुपये और मुफ्त राशन से ही बिहार का विकास होगा?” उनका मानना है कि इस पैसे से अगर छोटे उद्योग या रोजगार के साधन बनाए जाते तो बेहतर होता. वहीं, सुमन पटेल नाम के एक अन्य युवा का तर्क है कि महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्यों में भी महिलाओं को आर्थिक सहायता दी जाती है, तो बिहार में यह कदम गलत नहीं कहा जा सकता.
‘रेवड़ी राजनीति’ बनाम ‘व्यवहारिक विकास’
कुछ लोगों का कहना है कि चुनावी रेवड़ियां पूरे देश में बंट रही हैं, तो बिहार अपवाद कैसे हो सकता है. मधुबनी के एक बुजुर्ग मतदाता ने कहा कि “हम जन्मजात कांग्रेसी हैं, मगर अब विकल्पों की कमी है.” वहीं, चाट ठेले पर बैठे कुछ लोगों ने कहा कि इस बार मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच 19-20 का है.
लेकिन कई युवाओं का कहना है कि जब गुजरात, हरियाणा और तमिलनाडु में उद्योग बढ़ रहे हैं, तब बिहार अब भी नकद सहायता और मुफ्त राशन के भरोसे है. वे चाहते हैं कि सरकार रोजगार और उद्योग के साधन राज्य में ही विकसित करे ताकि पलायन की मजबूरी खत्म हो सके.
शराबबंदी, जातीय समीकरण और मतदाता की नई सोच
युवाओं ने नीतीश सरकार की शराबबंदी नीति पर भी सवाल उठाए. एक युवा ने कहा कि “शराबबंदी सिर्फ कागजों में है, क्योंकि गांव-गांव में अब होम डिलीवरी तक हो रही है.” जागरण के रिपोर्ट्स के अनुसार, लोगों का कहना है कि यह अवैध कारोबार अब बड़े पैमाने पर कमाई का जरिया बन चुका है.
वहीं, कुशवाहा समुदाय के सुमन पटेल का कहना है कि बिहार को वास्तव में आगे बढ़ाना है तो जाति और धर्म के दायरे से बाहर निकलकर सोचने की जरूरत है. मधुबनी का यह जनमानस दिखा रहा है कि इस बार मतदाता भावनाओं से ज़्यादा, विकास की कसौटी पर वोट डालने का मन बना रहा है.
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